About Vedanga

वेदाङ्गः(वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र)वेदसमस्त ज्ञानराशि के अक्षय भंडार है,तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति,सभ्यता एवं धर्म के आधारभूत स्तम्भ हैं। वेद धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। वेद भी अपने अङ्गों के कारण ही ख्यातिप्राप्त हैं,अतः वेदाङ्गों का अत्याधिक महत्व है।यहां पर अङ्ग का अर्थ है उपकार करनेवाला अर्थात वास्तविक अर्थ का दिग्दर्शन करानेवाला।
वेदाङ्ग छः प्रकार के हैः-
(१)शिक्षा,(२)कल्प,(३)व्याकरण,(४)निरुक्त,(५)छन्द और(६)ज्योतिष ।
(१)-शिक्षाः-स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो,उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्धउच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिकमन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
(२)-कल्पः-कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
(३)-व्याकरणः-वेद-शास्त्रों का प्रयोजनजानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदाङ्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
(४)-निरुक्तः-इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो,वह निरुक्त है।इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है
(५)-छन्दः-इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है।ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
(६)-ज्योतिषः-यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होतेहै तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
प्राचार्य मनोज कुमार पानिग्राही 
वेद पाठशाला व्रह्मपुर